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(१) 'मन्त्रपदात् उरगः नताननः'—सप मन्त्र के प्रभाव से सिर नीचा करता है'—यह मुख्य वाक्य हुआ।

अब विशेषणों को 'मन्त्रपदात्' में लगाता है—पहला विशेषण है 'कथाप्रसंगेन जनैदुराहृतात्'—अर्थात् मन्त्रउच्चारित होता है उन लोगों से—'जनैः'—जो 'कथाप्रसंगों में'—विषवैद्यों में—'इन' श्रेष्ठ हैं। दूसरा विशेषण है 'तवाभिधानात्' अर्थात् जिस मन्त्र में 'त' (तक्षक) तथा 'व' (वासुकि) के 'अभिधान' नाम हैं। अब एक पद बाकी रहा 'अनुस्मृताखण्डलसूनुविक्रमः'। इसका 'उरगः' के साथ लगता हुआ अर्थ है—'अनुस्मृत' है—'आखण्डलसूनु' (इन्द्र के छोटे भाई विष्णु) के 'वि' (पक्षी—गरुड़) का 'क्रम' (चलना) जिसको।

ऐसी टीका टीकाकर के पाण्डित्य को अवश्य सूचित करती है—पर सहृदयहृदयग्राहक नहीं होती।

शक्ति से प्रतिभा और व्युत्पत्ति उत्पन्न होती है। इनमें प्रतिभा का विवरण हो चुका। 'व्युत्पत्ति' का विचार बाक़ी है। उचित अनुचित के विवेक को 'व्युत्पत्ति' कहते हैं। प्रतिभा और व्युत्पत्ति में आनन्द ने प्रतिभा को प्रधान माना है। अव्युत्पत्तिकृतदोष तो प्रतिभा के बल से ढक जाते हैं—अप्रतिभाकृतदोष बहुत जल्द व्यक्त हो जाता है। पर मंगल ने व्युत्पत्ति ही को प्रधान माना है। पर असल बात यह है कि प्रतिभा और व्युत्पत्ति दोनों परस्पर मिल ही कर प्रधान होती हैं। जैसे बिना लावण्य के केवल शरीर सौष्ठव—अथवा बिना शरीर सौष्ठव के केवल लावण्य—सच्चा सौंदर्य नहीं होता।



(५)

प्रतिभा और व्युत्पत्ति दोनों जिसमें है वही 'कवि' है। 'कवि' तीन प्रकार के होते हैं—(१) शास्त्रकवि, (२) काव्यकवि, (३) शास्त्र-काव्योभयकवि। कुछ लोगों का सिद्धांत है कि इनमें सबसे श्रेष्ठ शास्त्रकाव्योभयकवि, फिर काव्यकवि, फिर शास्त्रकवि। पर यह ठीक नहीं। अपने अपने क्षेत्र में तीनों ही श्रेष्ठ हैं—जैसे राजहंस चन्द्रिका का पान नहीं

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