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उत्पन्न होती है-(३) फिर एकान्त वस्तुतत्वमात्र में मन लग जाता है--(४) ज्ञानवृद्ध सज्जनों का परिचय क्रमेण अमृत हो जाता है ।

‘बुद्धिमान्’ शिष्य तत्व जल्दी समझ लेता है । एक बार सुन लेने ही से वह बात समझ लेता है । ऐसे शिष्य को कवि मार्ग की (कवि का क्या रास्ता होना चाहिए इसकी) खोज में गुरु के पास जाना चाहिए ।‘आहार्यबुद्धि’ शिष्य एक तो पहले समझता नहीं--और फिर समझाने पर भी मन में नाना प्रकार के संशय रह जाते हैं । इसको उचित है कि अज्ञात वस्तु को जानने के लिए और संशयों को दूर करने के लिए आचार्य के पास जाय । जो शिष्य ‘दुर्बुद्धि’ है वह सभी जगह उलटा ही समझेगा । इसकी तुलना काले कपड़े के साथ की गई है--जिस पर दूसरा कोई रंग चढ़ ही नहीं सकता । ऐसे आदमी को यदि ज्ञान हो सकता है तो केवल सरस्वती के प्रसाद से ।

इसके प्रसंग में एक कथा कालिदास की मिथिला में प्रसिद्ध है । कालि-दास उन्हीं शिष्यों में से थे जिनका परिगणन ‘दुर्बुद्धि’ की श्रेणी में होता है । गुरु के चौपाड़ पर रहते तो थे पर बोध एक अक्षर का नहीं था । केवल खड़िया लेकर ज़मीन पर घिसा करें--अक्षर एक भी न बने । मिथिला में एक प्राचीन देवी का मन्दिर उचैठगाँव में है। वहाँ अब तक जंगल-सा है । कालिदास जहाँ पढ़ने को भेजे गये थे वह चौपाड़ इसी मन्दिर के कोस दो कोस के भीतर कहीं था । एक रात को अन्धकार छाया हुआ था, पानी जोर से बरस रहा था । विद्यार्थियों में शर्त होने लगी कि यदि इस भयंकर रात में कोई देवीजी का दर्शन कर आवे तो उसे सब लोग मिलकर या तो स्याही बना देंगे या काग्रज़ बना देंगे । [स्याही बनाने की प्रक्रिया तो अब भी देहातों में चलती है सो तो सभी को ज्ञात होगा । विद्यार्थी लोग काग्रज कैसे बनाते थे सो प्रक्रिया अब इधर ३०, ४० वर्षों से लोगों ने नहीं देखी होगी । नेपाल में बाँस से एक प्रकार का काग़ज़ बनता है । यह बड़ा पतला होता है यद्यपि बड़ा ही मजबूत । पतला बहुत होने के कारण पुस्तक लिखने के योग्य नहीं होता । यद्यपि और सब तरह की काग्रजी़ काररवाई अब तक भी नेपाल में उसी से चलती है । इस काग्रज़ को पुस्तक लिखने

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