‘प्रकरण’ कहते हैं । ग्रन्थों के अवान्तर विभाग 'अध्याय' ‘परिच्छेद'इत्यादि नाम से प्रसिद्ध हैं ।
‘साहित्य’ पद का असली अर्थ क्या है सो भी इस ग्रन्थ से ज्ञात होता है । ‘शब्द और अर्थ का यथावत् सहभाव’ अर्थात् ‘साथ होना’ यही ‘साहित्य’ पद का यौगिक अर्थ है––सहितयोः भावः (शब्दार्थयोः) । इस अर्थ से ‘साहित्य’ पद का क्षेत्र बहुत विस्तृत हो जाता है । सार्थक शब्दों के द्वारा जो कुछ लिखा या कहा जाय सभी ‘साहित्य’ नाम में अन्तर्गत हो जाता है—किसी भी विषय का ग्रन्थ हो या व्याख्यान हो—सभी ‘साहित्य’ है ।
( २ )
साहित्य के विषय में एक रोचक और शिक्षाप्रद कथानक है । पुत्र को कामना से सरस्वतीजी हिमालय में तपस्या कर रही थीं। ब्रह्माजी के वरदान से उन्हें एक पुत्र हुआ-जिसका नाम ‘काव्यपुरुष’ हुआ (अर्थात् पुरूष के रूप में काव्य)। जन्म लेते ही उस पुत्र ने यह श्लोक पढ़कर माताको प्रणाम किया--
यदेतद्वाङमयं विश्वमथ मूर्त्या विवर्तते ।
सोऽस्मि काव्यपुमानम्ब पादौ वन्देय तावको ॥
अर्थात्––‘जो वाङमयविश्व (शब्दरूपी संसार) मूर्तिधारण करके
विवर्तमान हो रहा है सो ही काव्यपुरुष मैं हूँ। हे माता ! तेरे चरणों को प्रणाम करता हूँ ।’ इस पद्य को सुनकर सरस्वती माता प्रसन्न हुई और कहा--‘वत्स, अब तक विद्वान् गद्य ही बोलते आये आज तूने पद्य का उच्चारण किया है । तू बड़ा प्रशंसनीय है । अब से शब्द-अर्थ-मय तेरा शरीर है-संस्कृत तेरा मुख--प्राकृत बाहु––अपभ्रंश जाँघ––पैशाचभाषा पैर––मिश्रभाषा वक्षःस्थल--रस आत्मा––छन्द लोम––प्रश्नोत्तर, पहेली इत्यादि तेरा खेल––अनुप्रास उपमा इत्यादि तेरे गहने हैं ।’ श्रुति ने भी इस मन्त्र में तेरी ही प्रशंसा की है—