कहते हैं । सूत्र और वृत्ति के विवेचन (परीक्षा) को ‘पद्धति’ कहते हैं । सूत्र-वृत्ति में कहे हुए सिद्धांतों पर आक्षेप करके फिर उसका समाधान कर उन सिद्धांतों का विवरण जिसमें हो उसे ‘भाष्य’ कहते हैं। भाष्य के बीच में प्रकृत विषय को छोड़ कर दूसरे विषय का जो विचार किया जाय उसे ‘समीक्षा’ कहते हैं । पूर्वोक्त सभों में जितने अर्थ सूचित हों उन सभों का यथासम्भव ‘टीकन’-उल्लेख जहाँ हो उसे 'टीका' कहते हैं । पूर्वोक्त ग्रन्थों में जो कहीं-कहीं कठिन पद हों उन्हीं का विवरण जिसमें हो उसे ‘पंजिका’ कहते हैं । जिसमें सिद्धांत का प्रदर्शन-मात्र हो सो ‘कारिका’ है । मूल ग्रन्थ में क्या कहा गया, क्या नहीं कहा गया, कौन-सी बात उचित रीति से नहीं कही गई--इत्यादि विचार जिस ग्रन्थ में हो वह ‘वातिक’ है । इनमें से आज भी सूत्र-वृत्ति-भाष्य-दार्तिक-टीका-कारिका इतने तो भली भांति प्रसिद्ध है। पंजिका बीस बरस पहले तक अज्ञात थी। पर १९०७ ईसवी में विलायत से कर्नल जेकब ने मेरे पास एक पुस्तक भेजी--जिसका नाम ‘ऋजुविमला’ तो हम सबो को ज्ञात था--पर उसकी पुष्पिका में ‘भाष्य’, ‘टीका’ इत्यादि नहीं लिखकर ‘पंजिका’ लिखा था । तब से उस ग्रन्थ को लोग ‘पंजिकामीमांसा’ या ‘मीमांसापंजिका’ भी कहने लगे हैं । (इस ग्रन्थ से मुझे अपनी प्रभाकरमीमांसा लिखने में बड़ी सहायता मिली थी--अब यह काशी में छप रहा है) । पर ‘पंजिका’ पद का क्या असल अर्थ है सो ज्ञात नहीं था--नाना प्रकार के तर्क हम लोग किया करते थे । राजशेखर के ही ग्रन्थ को देखकर यह पता चला कि एक प्रकार की टीका ही का नाम ‘पंजिका’ है ; पर इतना कहना पड़ता है कि ‘पंजिका’ का जैसा लक्षण ऊपर कहा है--जिसमें केवल विषम पदों के विवरण हों--सो लक्षण उक्त ग्रन्थ में नहीं लगता । यह ग्रन्थ बहुत विस्तृत है । उसके मूल प्रभाकर-रचित बृहती के जहाँ १०० पृष्ठ हैं, तहाँ ऋजुविमला के कम से कम ५०० पृष्ठ होंगे । ऐसे ग्रन्थ को हम ‘विषमपदटिप्पणी’ नहीं कह सकते ।
शास्त्र के किसी एक अंश को लेकर जो ग्रन्थ लिखा गया उसे