प्रफुलित नव नीरज रजनि, बासर कुमुद बिशास।
कोकिल शरद, मयूर मधु, बरषा मुदित मराल॥
यों रहीम सुख होत है, बढ़त देखि निज गोत।
ज्यों बड़री अंखिया निरखि, आँखिन को सुख होत।
यहाँ 'बड़री' विशेषण से विशेष सौंदर्य आ गया है।
लोक परलोक हूँ, तिलोक न बिलोकियत
तो सो समरथ चष चारिहूँ निहारिए।
कर्मकाल, लोकपाल, अग जग जीवजाल,
नाथ हाथ सब, निज महिमा बिचारिए।
खास दास रावरो, निवास तेरो तासु उर
तुलसी सो, देव! दुखी देखियत भारिए।
बाहु तरुमूल, बाहुसूल, कपिकच्छु बेलि
उपजी, सकेलि, कपि, खेलही उखारिये॥
तुलसीदास के बगल में बड़ी पीड़ा है। हनुमान् से उसे दूर करने को प्रार्थना कर रहे हैं। पीड़ा की तुलना 'कपिकच्छुबेल' से करना अत्यन्त उपयुक्त है क्योंकि कहा जाता है कि इस विशेष बेल को बन्दर देखते ही उखाड़ डालता है। अतः 'बेल' के साथ 'कपिकच्छु' विशेषण उपयुक्त है।
इस कवित्त की अन्तिम पंक्ति में कपि शब्द का प्रयोग भी सार्थक है।