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पावक, फरिण ( शेषनाग विष, भस्म और मुड धारण करनेवाले शङ्करजी पवर्गमय समझो अर्थात् उनके पास वे ही वस्तुएँ है जो पवर्ग (प, फ, ब, भ, म) से आरम्भ होती है, अत: वह क्या दे सकते है। वह जो अपवर्ग अर्थात् मुक्ति देते है, सो पार्वती के स्वामी होने के कारण जानो। भाव यह है कि अपवर्ग की देनेवाली वास्तव मे पार्वती है परन्तु वह स्वय न देकर अपने पति से दिलवाती है।

गणेश जी का दान वर्णन

कवित्त

बालक मृणालनि ज्यों तोरि डारै सब काल,
कठिन कराल त्यो अकाल दीह दुख को।
विपति हरत हठि पद्मिनी के पति सम,
पङ्क ज्यों पताल पेलि पठवै कलुष को।
दूर के कलङ्क अङ्क भव सीस ससि सम,
राखत है 'केशौदास' दास के वपुष को।
साकरे की सांकरन सनमुख होत तोरै,
दसमुख मुख जावै, गजमुख मुख को॥६६॥

जिस प्रकार कमल नाल को, हाथी का बच्चा, प्रत्येक दशा में तोड डालता है, उसी प्रकार श्रीगणेशजी अकाल के भयकर दुखो को तोड डालते है। विपत्तियो को, कमल के पत्ते की भाँति, सरलता पूर्वक तोड डालते है और पापको, कीचड की तरह दबाकर, पाताल मे भेज देते है। 'केशवदास' कहते है कि वह अपने दास ( भक्त ) के शरीर से कलक को दूर करके श्रीशिवजी के मस्तक पर रहनेवाले ( कलक रहित ) चन्द्रमा के समान करके उसकी रक्षा किया करते है। सामने जाते ही वह विपत्तियो की जजीर को तोड डालते है? इसीलिए दशोदिशाओ के लोग श्री गणेश जी का मुख देखा करते है।