और मेरा चित्त दिशाओ के चाक पर चढ कर, घाम, वर्षा और जाडे का ध्यान न रखते हुए, पृथ्वी से लेकर आकाश तक का चक्कर लगाया करते है। मे अपने शरीर को ( वापी, कुऑ और तालाब आदि की तरह कब तक स्थिर ) रखू। इसलिए मैने सोचा है कि मै ज्ञान के पहाड को फोडकर और लज्जा के वृक्ष को तोडकर उनसे ( प्रियतम से ) इस तरह जा मिलू जैसे नदी पहाडो और वृक्षो को तोडती हुई स्वय समुद्र मे जा मिलती है।
२८---दानि वर्णन
दोहा
गौरि, गिरीश, गणेश, निवि गिरा, ग्रहन को ईश।
चिन्तामणि सुरवृक्ष, गो, जगमाता, जगदीश॥६२॥
रामचन्द्र, हरिश्चन्द्र, नल, परशुराम दुखहर्ण।
केशवदास, दधीचि, पृथु, बलि, सुविभीषण, कर्ण॥६३॥
भोज, विक्रमादित्य, नृप, जगद्देव रणधीर।
दानिन हूँ के दानि, दिन, इन्द्रजीत बरवीर॥६४॥
गौरी (श्री पार्वतीजी , गिरीश (श्री शङ्कर जी), श्री गणेश, विधि (श्री ब्रह्मा जी, सूर्यदेव, चिन्तामणि, सुरवृक्ष (कल्पवृक्ष), सुरगो (कामधेनु), जगमाता। श्री लक्ष्मीजी), जगदीश (श्री नारायण', श्रीरामचन्द्र, श्रीहरिश्चन्द्र, राजानल, श्री परशुराम, दधीचि, राजापृथु, राजा बलि, विभीषण, करण, राजा भोज, राजा विक्रमादित्य, राजा रणधीर जगद्दव (राजा इन्द्रजीत के बड़े भाई) और दानियो के भी दानी प्रतिदिन दान करनेवाले इन्द्रजीत तथा बीरबल दानी माने जाते है।
उदाहरण
गौरी का दान
दोहा
पावक, फनि, विष, भस्म, मुख, हरपवर्गमय मानु।
देत जु है अपवर्ग कहुँ, पारवतीपति जानु॥६५॥