'केशवदास' कहते हैं फि शूर, सतीस्त्री और उद्धरेता ( बह्मचारी ) ये लोग ही तो सूर्य मडल को भेदनेवाले हुआ करते है। इन्हे तन, मन और वचन से न काम होता है, न लोभ होता है, न क्षोभ होता है और न मोह होता है तथा ये महा-भय को भी जीतनेवाले होते है। ये लोग बाल से लेकर वृद्धावस्था तक विपत्तियो मे वैर्य धारण करने वाले होते है। ये लोग जब कलियुग तक मे करुणा के समुद्र होते है तब सतयुग, त्रेता और द्वापर की गिनती कौन करे।
११---चंचलवर्णन
दोहा
तरल तुरग, कुरंग, गन, बानर, चलदल पान।
लोभिन के मन, स्यारजन, बालक, काल विधान॥२५॥
कुलटा कुटिल, कटाक्ष, मन, सपनो, जोबन, मीन।
खजन, अलि, गजश्रवण; श्री, दामिनि पवन प्रवीन॥२६॥
हे प्रवीन घोडा, हिरन बादल, बन्दर पीपल के पत्ते लोभियो के मन, कायर मनुष्य बालक, समय का विधान, कुलटा स्त्री, कुटिल मनुष्यो के कटाक्ष, मन, स्वप्न, यौवन, मछली, खजन, भौंरा, हाथी के कान, लक्ष्मी, बिजली तथा वायु चचल माने जाते है।
उदाहरण
कवित्त
भौंर ज्यों भवत लोला, ललना लतान प्रति,
खंजन सो थल, मीन मानो जहाँ जल है।
सपनो सो होत, कहूँ आपनो न अपनाये,
भूलिए न बैन ऐन आक को सो फल है।
गहिय धौं कौन गुन, देखत ही रहियेरी,
कहिये कछू न, रूप मोह को महल है।
चपला सी चमकनि, सोहै चारु चहूँ दिसि,
कान्ह को सनेह, चल दल को सो दल है॥२७॥