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उदाहरण

सवैया

पहिले सुखदै सबही को स़खी, हरिही हितकै जुहरी मति मीठी।
दूजे लै जीवनमूरि अकूर, गयो अँग अग लगाय अँगीठी॥
अबधौं केहिकारण ऊधव ये, उठिधाये लै केशव झूठी बसीठी।
माथुर लोगनिके सँगकी यह बैठक तोहि अजौ न उबीठी॥३५॥

हे सखी! पहले तो हरि ( श्री कृष्ण ) ने सबको सुख दिया और प्रेम करके सुबुद्धि हर लो। फिर अक्र आकर उन जीवनमूरि ( श्री कृष्ण ) को ले गये और इस तरह मानो उन्होने अंग अंग में अगोठी लगा दी ( जलन उत्पन्न कर दी दुख दे दिया )। 'केशवदास' ( सवो को ओर से ) कहते हैं कि अब यह ऊधव झूठा सदेश लेकर क्यो आये हैं? मथुरा के लोगो के साथ का उठना-बैठना तुझे अब भी अरुचिकर नहीं हुआ?

( इस सवैया के पहले चरण में 'को' को दीर्घ लिखा गया है परन्तु उसका उच्चारण ह्रस्व की तरह होता है। इसी तरह दूसरे चरण में 'जे' और, 'लै' अक्षर ह्रस्व की तरह पढ़े जाते है। तीसरे चरण में ये और 'ल' का उच्चारण भी ह्रस्व हो होता है। )

संयोगी के आदि युत, कबहुंक बरन बिचारु।
केशवदास प्रकासबल, लघुकरि ताहि निहारु॥३६॥

केशवदास जी कहते है कि सयुक्तअक्षर के आदि के अक्षर को भी कभी कभी अपनी बुद्धि के बल से 'लघु' ही समझना चाहिए। अर्थात्क भी-कभी सयुक्ताक्षर के पहले का अक्षर भी लघु माना जा सकता है )

उदाहरण

दोहा

अमल जुन्हाई चन्दमुखि, ठाढ़ी भई अन्हाय।
सौतिनिके मुखकमल ज्यो, देखि गये कुम्हिलाय॥३७॥