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कविता १४
 

परम प्रवीन अति कोमल कृपाल तेरे,
उरते उदित नित चित हितकारी है।
'केशौराय' कीसों अति सुन्दर उदार शुभ,
सजल सुशील विधि सूरति सुधारी है।
काहूसों न जानैं हॅसि बोलि न विलोकि जानें,
कंचुकी सहित साघु सूधी वैसवारी है।
ऐसे ही कुचनि सकुचनि न सकति बूझि,
परहिय हरनि प्रकृति कौने पारी है।


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कवित्त १०
 

भूषण सकल घनसार ही के घनश्याम,
कुसुम कलित केस रही छवि छाई सी।
मोतिन की लरी सिर कंठ कंठमाल हार,
बाकी रूप ज्योति जात हेरत हिराई सी।
चन्दन चढ़ाये चारु सुन्दर शरीर सब,
राखी शुभ सोभा सब बसन बसाई सी।
शारदा सी देखियत देखो जाइ केशोराय,
ठाढ़ी वह कुँवरि जुन्हाई में अनन्हाई सी॥१०॥