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दोहा

अतिरति मतिगति एककर, बहु विवेक युतचित्त।
त्यो न होय क्रमभंग त्यों, बरनो चित्रकवित्त॥४॥

बड़े प्रेम के साथ, मति (बुद्धि) की गति को एकत्र करते हुए, अर्थात् जहाँ तक बुद्धि जा सके वहाँ तक, अपने चित्त को विवेक यत करके चित्रालंकार युक्त रचना करो, जिससे पहले लिखे हुए नियमो का (जहाँ तक हो सके) क्रम भंग न हो। [भाव यह है कि यद्यपि चित्रालंकार में, दोषो पर ध्यान नहीं देने का अधिकार प्राप्त है, परन्तु फिर भी जहाँ तक हो सके दोषो से बचना ही चाहिए]

९---निरोष्ठ

दोहा

पढ़त न लगै अधर सों, अधर वरण त्यो मड़ि।
और वर्ण बरणौ सबै, उप वर्ग को छंड़ि॥५॥

'निरोष्ठ' में ऐसे अक्षरो को रखो कि उसे पढ़ते समय और ओठ से ओठ न छूने पावें। इस तरह की रचना में 'उ' 'ऊ' पर्वग (प, फ, ब, भ, म) को छोड़ कर, सभी अक्षरो का प्रयोग करो।

उदाहरण

कवित्त

लोक लीक नीकी, लाज लीलत है नंदलाल,
लोचन ललित लोल लीला के निकेत है।
सौ हन को सोच न संकोच लोका लोकनि को,
देत सुख, ताको सखी दूनो दुख देत है।
'केशौदास' कान्हर कनेर ही के कोरक से,
बाह्य रंग राते अंग, अंतस में सेत है।