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३७---चित्रालंकार
दोहा
केशव चित्र समुद्र में, बूड़त परम विचित्र।
ताके बूंदक के कणे, बरनत हौं सुनि मित्र॥१॥
'केशव दास' कहते हैं कि चित्रालंकार के समुद्र में बड़ी अद्भुत प्रतिमा वाले भी गोता खाने लगते हैं। हे मित्र! सुनो, मैं उसी समुद्र की एक बूंद के एक कण का वर्णन करता हूँ।
दोहा
अधऊरध बिन बिदुयुत, जति, रमहीन, अपार।
बधिर, अंध, गन अगन को, गनियन नगन विचार॥२॥
इन चित्रालंकारो में, विसर्ग अनुस्वार, यति भंग, रसहीनता, बधिर, अध तथा गण अगण का विचार नहीं किया जाता।
दोहा
केशव चित्रकवित्त में, इनके दोष देख।
अक्षर मोटो पातरो, बव जय एको लेख॥३॥
'केशवदास' कहते हैं कि चित्रालंकार युक्त रचनाओं में इन दोषो का विचार न कीजिए। (इतना ही नहीं, यदि आवश्यकता पड़े तो) दीर्घ अक्षर को लघु, मान लीजिए तथा 'ब' और 'व' एवं 'ज' और 'य' को एक ही समझिए।