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[इसमें 'सूरजु-सूरजु', 'रमणी-रमणी' तथा 'रति-रति' में यमक है।]

चतुष्पाद यमक

दोहा

नहीं उरबसी उरबसी, मदत मदन वश भक्त।
सुर तरुवर तरुवर तजै, नंद-नंद आसक्त॥१७॥

जो भक्त होते हैं, उनके मन में उरवसी वास नहीं करती और न वे काम के नशे के वश में होते है। जो नन्द-नन्द (नन्द के पुत्र श्रीकृष्ण) पर आसक्त रहते है वे कल्पवृक्ष को भी साधारण वृक्ष की भाँति छोड़ देते हैं।

[इसके चारों पदो में यमक है]

दोहा

अब्ययेत जमकनि सदा, वरणहू इहिविधिजान।
करो व्ययेत विकल्पना, जमकनिकी सुखदान॥१८॥

अत्व्येयत यमको सदा इसी तरह से वर्णन करना चाहिए। अब मैं व्ययेत यमको का आनन्ददामी वर्णन करता हूँ।

सव्ययेत यमक

दोहा

माधव सो धव राधिका, पावहु कान्हकुमार।
पूजौ माधव नियम सों, गिरिजा को भरतार॥१९॥

हे राधिका! यदि तुम इस बात की अभिलाषा करती हो कि तुम्हें माधव (विष्णु) के समान श्रीकृष्ण पति रूप में मिले वो नियम से वैशाख मास में श्री शङ्कर जी को पूजो।