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त्रिपाद यमक

दोहा

देखि प्रबाल प्रबाल हरि, मन मनमथरस भीन।
खेलन यह सुन्दरि गई, गिरि सुन्दरी दरीन॥१४॥

वृक्षो के नये पत्ते तथा युवक हरि (श्रीकृष्ण) को देखकर वृथा काम मे लीन होकर, वह सुन्दरी पहाड़ों की सुन्दर गुफाओ में खेलने को गई।

[इसमें तीसरे पद को छोड़कर शेष तीनो में यमक है। पहले में 'प्रबाल-प्रबाल' में दूसरे में 'मन-मन' में और चौथे में 'दरी- दरी' में।]

दोहा

परमानंद पर मानदहि, हेखति बन उतकण्ठ।
यह अबला अब लागिहै, मन हरि हरि के कण्ठ॥१५॥

अत्यन्त आनन्द स्वरूप तथा दूसरो को मान देने वाले (श्रीकृष्ण) को देख कर, वन मे यह अबला, हरि (श्रीकृष्ण) का मन हर कर, उनके कण्ठ से अब लगेगी।

[इसमें 'परमानंद-परमानंद', 'अबला-अबला', तथा 'हरि-हरिए पदो में यमक है।]

जूझि गयो संग्राम में, सूर जु सुरजु लेखि।
दिविरमणी रमणीय करि, मूरति ररि सम देखि॥१६॥

हे सूर! सूर्य संग्राम में जूझ चुके हैं अर्थात् अस्त हो चुके है अतः स्वर्ग की रमणी अर्थात् अप्सरा जैसी रमणीय तथा रति के समान मूर्तिवाली को चलकर देखो।