'केशवदास' कहते है कि यदि चन्द्रमा को आपके मुख के समान कहे तो वह आकाश में प्रकट हो (कलंकी रूप में) प्रकाशित हो रहा है दूसरा रूप (जो निष्कलंक है) वह श्री शङ्कर जी के शिर पर (क्षीण रूप में) यदि कमल सा मुख बतलाऊँ तो वे स्थान-स्थान पर, जलाशय, जलाशय मे निर्मल, अचल और कोमल रूप के अनेक रंगो के दिखलायी पड़ते हैं अर्थात् बहुत से है और मुख अपनी शोभा का एक ही है। यदि दर्पण जैसा बतलाऊँ तो वह बहुत कठोर है और उसका यश भी अचल नहीं है अर्थात् कुछ समय पश्चात् बिगड़ जाता है। यदि अमृत जैसा कहूँ, तो अमृत तो इस पृथ्वी पर की अनेक स्त्रियो के ओठो में पाया जाता है। इसलिए हे सीता जी! जो सदा एक रस और एक रूप रहता है और जिसकी बड़ी प्रशंसा सुनी जाती है, ऐसा आपका मुख आपही जैसा है।
१२---उत्प्रेक्षितोपमा
दोहा
एकै दीपति एककी, होय अनेकनि माह।
उत्प्रक्षित उपमा सुनो, कही कबिनके नाह॥२७॥
जहाँ उपमेय का गुण अनेक उपमानो में भी पाया जाय वहाँ उत्प्रेक्षितोपमा कही जाती है। इसको अनेक कवि सम्राटो ने बतलाया है।
उदाहरण
कवित्त
न्यारो ही गुमान मन मीननि के मानियत,
जानियत सबही सु कैसे न जनाइये।
पंचबान बाननि के आन आन भांतिगर्व,
बाढ्यौ परिमान बिनु कैसै सो बताइये।