पृष्ठ:कवि-प्रिया.djvu/२९१

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तो रदनच्छदको रस रंचक चाखिगये करि केहूँ ढिठाई,
तादिनते उन राखी उठाइ समेत सुधा बसुधाकी मिठाई॥४६॥

पृष्ठ १३८
कवित्त ४७
 

केशोदास प्रथमहि उपजत भय भीरु,
रोष, रुक्षि, स्वेद, देह कम्पनगहत है।
प्राण-प्रिय बाजीकृत बारन पदाति क्रम
विविध शवद द्विज दानहि लहत है।
कलित कृपा न कर सकति सुमान त्रान,
सजि सजि करन प्रहारन सहत है।
भूषन सुदेश हार दूषत सकल होत,
सखि न सुरती, रीति समर कहत है॥४७॥

पृष्ठ १४२
कवित्त १०
 

गोरे गात, पातरी, न लोचन समान मुख,
उर उरजातन की बात अब रोहिये।
हॅसति कहत बात फूल से झरत जात,
ओठ अवदात राती देख मन मोहिये।
श्यामल कपूरधूर की ओढ़नी ओढ़े उड़ि,
धूरि ऐसी लागी "केशो" उपमा न टोहिये।
काम ही की दुलही सी काके कुलउलहीसु,
लहलही ललित लतासी लोल सोहिये।


पृष्ठ १७
सवैया ९
 

कोमलकंज से फूल रहे कुच, देखतही पति चन्द विमोहै।
बानर से चल चारु विलोचन, कोये रचे रुचि रोचन कोहै।
माखन सो मधुरो अधरामृत, केशव को उपमांकहुँ टोहै।
ठाढ़ी है कामिनी दामिनसी, मृगभामिनि सी गजगामिनी सोहै॥९॥