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८---मोहोपनमा

दोहा

रूपक के अनुरूप ज्यो, कौनहु विधि मन जाय।
ताहीसों मोहोपमा, सकल कहत कविराय॥१९॥

जहाँ रूपक अर्थात् उपमेय को किसी प्रकार अनुरूप (उपमान) समझ लिया जाय उसे सभी महाकवि लोग मोहोपमा कहते है।

उदाहरण

कवित्त

खेल न खेल कछू, हांसी न हॅसत हरि,
सुनत न गान कान तान बान सी बहै।
ओढ़त न अबरन, डोलत दिगंबर सो,
शबर ज्यों शबरारि दुख देह को दहै।
भूलिहू न सूंधै फूल, फूल तूल कुम्हिलात,
गात, खात बीरा हू न बात काहू सो कहै।
जानि जानि चदमुख केशव चकोर सम,
चंदमुखी चंद ही के बिव त्यों चितै रहै॥२०॥

(एक सखी नायिका से कहती है कि) हे चन्द्रमुखी! श्रीकृष्ण न तो कोई खेल खेलते है, न हॅसी ही करते हैं, न गान ही सुनते हैं क्योंकि गाने की तान तो उनके कानो मे बाण सी लगती है। वह कपड़े भी नहीं ओढ़ते, दिगम्बर (नंगे) से घूमा करते है और शबरारि (काम) पीड़ा तो उनको उसी प्रकार उनके शरीर को कष्ट देती है जैसे स्वंय काम ने शङ्कर को कष्ट दिया था। वह भूलकर भी फूल नहीं सूँघते, क्योंकि फूल के समान शरीर उसके सूँघने से मुर्झा जाता है। वह पान भी नहीं खाते और न किसी से बातें करते है। 'केशवदास' (सखी की ओर से) कहते हैं कि वह तेरे मुख