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( २ ) शब्दविरोधी बधिर।

सवैया

सिद्व सिरोमणि शंकर सृष्टि, सँहारत साधु समूह भरी है।
सुन्दर मूरत आतमभूतकी, जारि घरीक मे छार करी है॥
शुभ्र विरूप विलोचन सो, मति केशवदास के ध्यान अरी है।
बन्दत देव अदेव सबै मुनि गोत्र सुता अरधंग धरी है॥१०॥

सिद्ध सिरोमणि शंकर जी साधु-समूह भरी सृष्टि का संहार करते हैं। उन्होने आत्म-भूत ( कामदेव ) की सुन्दर मूर्ति को घड़ी भर मे जलाकर क्षार कर डाला है। उनका शुभ्र, त्रिलोचन तथा विशेष सुन्दर रूप केशवदास के ध्यान में समाया हुआ है। जिन्होने गोत्रसुता ( पार्वती ) को अर्द्धाङ्ग में धारण किया है, उनकी वन्दना देव, अदेव तथा मुनि सभी करते है।

[ यहाँ सिद्धशिरोमणि शङ्कर जी के साथ 'सहारत' क्रिया का प्रयोग करना अनुचित है। शङ्कर का अर्थ कल्याणकारी होता, अतः इस क्रिया का प्रयोग दोष है। आत्म भूत का अर्थ कामदेव के अतिरिक्त पुत्र भी होता है, इसलिये शब्द का प्रयोग भी ठीक नहीं हुआ है। इसी प्रकार त्रिलोचन के साथ शुभ्र तथा विरूप शब्दो के प्रयोग भी अनुचित प्रतीत होते है। 'अरी' का अर्थ बैरी भी हो सकता है, इसलिए इसका प्रयोग भी ठीक नहीं हुआ है। 'गोत्रसुता' का अर्थ पुत्री भी हो सकता है इसलिए यह प्रयोग भी अनुचित प्रतीत होता है। ये सभी शब्द परस्पर विरोधी अर्थ देने का कारण 'बधिर' दोष के अन्तर्गत आते है। ]

तोल तुल्य रहै न ज्यों, कनक तुला, तिल आधु।
त्योंही दोभंग को, सहि न सकैं श्रुति साधु॥११॥

जिस प्रकार साने को तौलने की तराजू कांटा आधे तिल का भी भार भेद नहीं सह सकती, उसी प्रकार शुद्ध कविता को सुनने के अभ्यासी कान तनिक भी छन्दो भंग को नहीं सह सकते।