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'केशवदास' कहते है कि जहाँ और कुछ करते हुए और कुछ स्थिति उत्पन्न हो जाय, श्रेष्ठ कविगण उसे परिवृत' अलंकार कहते है।

उदाहरण (१)

सवैया

हँसि बोलतही सु हँसै सब केशव, लाज भगावत लोक भगै।
कछु बात चलावत घेरु चलै, मन आनतहीं मनमत्थ जगै॥
सखि तूँ जू कहै सु हुती मन मेरेहू, जानि इहै न हियो उमगै।
हरि त्यो निकुडीठि पसारतहीं, अगुरीनि पसारन लाग लगै॥४०॥

'केशुवदास' (किसी नायिका की ओर सखी से) कहते हैं कि मै जब हँसती बोलती हू, तो सब लोग हँसत हैं और लज्जा को भगाती हूँ तो लोग मुझसे भागते है अर्थात् लज्जा छोड़ कर देखती हूँ तो मारे घृणा के मुझसे दूर-दूर रहते है। कुछ बातें करती हूँ तो निन्दा होने लगती है, जो मन चलाती हूँ तो कामोद्दीपन होता या काम जागृत होता है। इसीलिए हे सखी! जो तू मुझसे कहती थी (कि प्रेम मतकर) वह मेरे मन मे भी थी और यही जानकर मेरा हृदय उत्साहित नहीं होता, क्योकि हरि (श्रीकृष्ण) की ओर तनिक भी दृष्टि करते ही लोग उँगली उठाने लगते है।

उदाहरण-२

सवैया

हाथ गह्यो, ब्रजनाथ सुभावही, छूटिगई धुरि धीरजताई।
पान भखै मुख नैन रचोरुचि, आरसी देखि कह्यो हम ठाई॥
दै परिरंभन मोहन कोमन, मोहि लियो सजनी सुखदाई।
लाल गुपाल कपोल नखक्षत, तेरे दिये ते महाछवि छाई॥४१॥