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१-मणि दीपक

दोहा

बरषा, शरद, बसंत, शशि, सुभता, शोभ सुगंध।
प्रेम, पवन, भूषण, भवन, दीपक दीपकबंधु॥२३॥
इनमे एक जु वरणिये, कौनहु बुद्धि विलास।
तासों मणिदीपक सदा, कहिये केशवदास॥२४॥

'केशवदास' कहते है कि वर्षा, शरद, वसन्त, चन्द्रमा, सौन्दर्य शोभा सुगन्ध, प्रेम, पवन, भूषण और भवन ये दीपक अलंकार के बन्धु है अर्थात् इन्हीं के वर्णन से दीपक अलंकार का वर्णन अच्छा लगता है। इनमें से यदि एक का भी वर्णन अपनी बुद्धि के चमत्कार से किया जाय तो उसे सदा 'मरिणदीपक' कहना चाहिये।

उदाहरण

कवित्त

प्रथम हरिन नैनी! हेरि हरे हरि की सौ,
हरषि हरषि तम तेजहि हरतु है।
'केशौदास' आस-पास परम प्रकास सों,
बिलासिनी! बिलास कछु कहि न परतु है।
भांति भांति भामिनि! भवन यह भू षो नव
सुभग सुभाय शुभ शोभा को धरतु है।
मानिनि! समेत मान मानिनीनि वश कर,
मेरो दीप तेरो मन दीपत करतु है॥२५॥

हे हरिण नैनी! पहले श्रीकृष्ण के सामने को देख, प्रसन्न हो होकर तेरे मानरूपी अन्धकार को अपने तेज से हरे लेते हैं। 'केशवदास' (सखी की ओर से) कहते है कि हे बिलासिनी! आस-पास उनके सौन्दर्य का परम प्रकाश फैला है। उसकी शोभा कुछ कही नहीं जा सकतीं। हे