बाजत है मृदुहास मृदग, सुदिपति दीपन कों उजियारो।
देखतहौ हरि देखि तुम्है यह, होत है आंखिनही मे अखारो॥२०॥
हे हरि! देखते हो, तुम्हे देखकर आँखों मे ही सगीत का अखाड़ा बन जाता है। 'केशवदास' कहते है इस अखाड़े मे काली सफेद काछनी पहने हुए पुतलिया पातुरें (वेश्याएँ) है। जो करोड़ो कटाक्ष है, वे ही गति भेद है। स्नेह को, नचाने वाला निराला नायक मानो। उसमे मृदुहास का मृदग बजता है। और उसकी दीप्ति को दीपको का उजाला मानो।
(इसमे परम्परा छोड़ कर मनमाने ढंग से वर्णन किया गया है।)
३२-दीपक अलङ्कार
दोहा
वाचि, क्रिया, गुण, द्रव्य को, बरणहु करि इक ठौर।
दीपक दीपति कहत है, केशव कवि शिरमौर॥२१॥
'केशवदास' कहते है कि जहाँ पर वर्ण्यवस्तु के अनुरूप ही उसकी क्रिया और गुण को भी समुचित स्थान पर वर्णन किया जाता है, उसे कवि शिरमौर 'दीपक' अलंकार कहते है।
दीपक के भेद
दोहा
दीपक रूप अनेक है, मै बरणे द्वै रूप।
मणिमाला तासों कहै, केशव सब कविभूप॥२२॥
'केशवदास' कहते है कि 'दीपक' के, अनेक भेद है, परन्तु मैने उसके दो रूपो का ही वर्णन किया है। उन दोनो भेदो को सभी कविराज लोग (१) मणि और (२) कहते है।