कर्ण जैसे दुष्ट से अधिक दुष्ट बहुत से योद्धार्थ, पाप और कष्ट भी जिनके शासन को नहीं टालते थे अर्थात् उनकी अवज्ञा नहीं करते थे और आज्ञानुसार चलते थे दुर्योधन जैसे सब भाइयो का दल भी, बाहे उसकाये हुए साथ था केशवदास कहते है कि हजारो हाथियो के बल से, निडरता के साथ, वस्त्र को खींचते खींचते थक गया, परन्तु दु:शासन से, द्रौपदी का तिल भर अंग भी उघारे नहीं उघरा।
उदाहरण-२
कवित्त
सिखै हारी सखी, डरपाय हारी कादबिनी
दामिनि दिखाय हारी, दिसि अधिरात की।
झुकि झुकिहारी रति, मारि मारि हारयों मार,
हारी झकझोंरति विविध गति बात की।
दई निरदई दई वाहि ऐसी काहे मति,
आरति जु ऐन रैन दाह ऐसे गात की।
कैसेहू न मानै, हौ मनाइहारी 'केशौदास'
वोलिहारी कों किला, बोलायहारी चातकी॥१६॥
सखी सिखा सिखाकर हार गई, मेघमाला डरा-डराकर हार गई और बिजली आधी रात के समय दिशाओ को दिखला दिखलाकर हार गई। रति बेचारी झुक झुककर (निहोरे करते, करते) हार गई, कामदेव मार-मारकर (आक्रमण कर करके) हार गया और वायु को गति की अनेक विधियाँ (शीतल, मन्द, और सुगन्ध) झकझोर, झकझोर कर हार गई। हे निर्दयी दैव! ऐन रात में, अपने ऐसे शरीर को कष्ट देने की बुद्धि क्यो दे दी? केशवदास (सखी की ओर से) कहते है कि वह किसी प्रकार भी मनाये नहीं मानती, मै मना, मनाकर हार