राज्य का भार क्षत्रियपन का भार, भूमि का भार, संसार का भार, विजय का भार अच्छी तरह उठाये रहते है। प्रेम का भार प्रतिज्ञा का भार, केशवदास कहते है कि संपत्ति का भार, मर्यादा का भार उठाते हुए युद्धो मे भी भिड़ जाते है। दान का भार, मान का भार, सभी गुणो का भार, भोग का भार और लोगो के भाग्यो का भार सहन करते हुए भी काम करते रहते है। राजाराम तो अपने सिर इतने भारो को फल के समान सरलता पूर्वक वहन करते है और शत्रुओ के शिर फटते है।
उदाहरण-३
सवैया
पूत भयो दशरथको केशव, देवन के घर बाजी बधाई।
कृलिकै फूलनकों बरषै, तरु फूलि फलै सबही सुखदाई।
क्षीर बही सरिता सब भूतल, धीर समार सुगध सुहाई।
सर्वसु लोग लुटावत देखि कै, दारिद देह दरारसी खाई॥११॥
'केशवदास' कहते है कि राजा दशरथ के पुत्र हुआ तो देवताओ के घर बधाई बजने लगी। पेड़ फूल, फूलकर फूल बरसाने लगे और सभी को आनन्द देने लगे सभी नदियाँ दूध की धारा बहाने लगी और मन्द वायु सुगन्धित हो गई इस तरह लोगो को सर्वस्व लुटाते देख, दरिद्रता के शरीर मे दरारें सी हो गई।
(इसमें दूसरे गुणो से दूसरे के दोषो का वर्णन है, अत: व्याधि- करणोक्ति है)।
उदाहरण-४
दोहा
होय हँसी औरनि सुनै, यह अचरज की बात।
कान्ह चढ़ावत चंदनहि, मेरो हियो सिरात॥१२॥