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२---सहज व्यतिरेक

सवैया

गाय बराबरि धाम सबै, धन जाति बराबरिही चलि आई।
केशव कंस दिवान पितानि, बराबरिही पहिरावनि पाई॥
बैस बराबरि दीपति देह, बराबरि ही बिधि बुद्धि बड़ाई।
ये अलि अजुही होहुगो कैसे, बड़ी तुम ऑखि नहीं की बड़ाई॥८०॥

दोनो के गायें बराबर है, घर, धन और जाति भी सदा से बराबर हो चले आते है। (केशवदास सखी की ओर से) कहते है कि तुम्हारे पिताओ ने कंस के दरबार से पहरावन (सिरोपाव) भी बराबर ही पाई है। तुम लोगो की वयस भी बराबर ही है। देह की सुन्दरता भी एक सी है तथा विधि (सस्कारादि, कुल परम्परा), बुद्धि और प्रतिष्ठा भी बराबर है। फिर हे सखी! केवल आँखो की बड़ाई के कारण तुम आज उनसे कैसे बड़ी हो जाओगी?

[यहाँ सब बातें समान होने पर भी नायिका की ऑखे बडी हैं अतः व्यतिरेक अलंकार है]

२०---अपन्हुति अलङ्कार

दोहा

मनकी वरतु दुराय मुख, औरै कहिये बात।
कहत अपन्हुति सकल कवि, यासों बुधि अवदात॥८१॥

जहाँ मन की वस्तु छिपाकर कोई दूसरी बात प्रकट की जाय, वहाँ श्रेष्ठ बुद्धि वाले सभी कवि 'अपन्हुति अलंकार कहते है।