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'केशवदास' कहते है जिस कागज के फटने से ऋण से छुटकारा मिलता हो, उसका फटना भला है और इसी प्रकार तीर्थ मे मरना भी अच्छा है। अपने सगे-सम्बन्धियो की गाली अच्छी है और वह दण्ड अच्छा है, जो गया मे भरना पड़े।

[इसमे हानि, हार, शूल, बाधना, वध, चिता पर जलना, फटना, करना, मरना, गाली खाना तथा दण्ड भरना आदि वर्णन अशुभ है परन्तु उनको शुभ वर्णन किया गया है अत: अयुक्त-युक्त अर्थान्तर न्यास अलंकार है]

उदाहरण (२)

सवैया

आगैह्वै लीबो यहै, जु चितै इत, चौकि उतै दृग ऐचिलई है।
मानिबे को वहई प्रति उत्तर, मानिये बात जु मौनमई है॥
रोषिकी रेख, वहै रस की रुख, काहे को केशव छांडि दई है।
नाहि इहाँ तुम नाहि सुनी यह नारि नईन की रीति नई है॥७४॥

(कोई दूती नायक से कहती है कि) उसने जो तुम्हे आगे बढ़कर लेना मानो तुम्हारा स्वागत करना था उसने जो चौंक कर तुम्हारी ओर से आँखें फेर ली, यह संकोच था। तुम्हारी बातो को मानने का प्रत्युत्तर यही था कि वह चुप हो गई, इसलिए मेरी बात मानिए। उसने जो क्रोध की रेखा प्रकट की वही मानो उसकी रसिकता है अत: (केशवदास उस दूती की ओर से नायक से कहते है कि) तुमने उसे क्यो छोड़ दिया? तुमने क्या यह नहीं सुना कि नई स्त्रियो की रीति भी नई ही हुआ करती है।

[इसमे आँखें फेर लेना, चुप हो जाना और रोष की रेखा प्रकट करना आदि बाते अयुक्त है परन्तु युक्त (उचित) बतलाई गई है अतः अयुक्तायुक्त अर्थान्तर न्यास अलड़्कार है]