वरदानो द्वारा मुझे हानि पहुचाने को उद्यत प्रतीत होते है उसी क्रोधा वेश मे वह कह रहे है कि]
बारहो सूर्य को अदृष्य करके, या आठो वसुओ को नष्टकर डालूगा। रुद्रो को समुद्र मे डुबाकर, गन्धर्वो को पशु के समान बलि चढादूँगा। वरुण सहित कुबेर और इन्द्र को पकड़कर बलि को समर्पित कर दूँगा। विद्याधरो का अस्तित्व मिटा दूँगा और सिद्धो को सिद्धि-रहित कर दूँगा। आदिति को दिति की दासी बनाकर छोडूगा। वायु, अग्नि और जल सब मिट जायँगे। हे सूरज (सूर्यपुत्र-सुग्रीव)। सुनो, सूर्य के उदय होते ही मैं सारे संसार को, अपने बल से देव-रहित कर डालूँगा।
[इसमे 'क्रोध' स्थायी भाव है, इसलिए रौद्र रसवत अलंकार है]
रसवत
उदाहरण
सवैया
दूरिते दुन्दुभी दीह सुनी न गुनी जनु पुँज की गुँजन गाढ़ी॥
तोरन तूर न ताल बजै, बरह्मावत भाट न गावत ढाढ़ी।
विप्र न मंगल मन्त्र पढ़े, अरु देखै न वारवधू ढिग ठाढ़ी।
केशव तात के गात, उतारति आरति मातहि आरति बाढ़ी॥५७॥
(जिस समय श्री भरत जी अपनी ननिहाल से लौटे, उस समय उन्होने देखा कि) न तो दूर से दुन्दुभी की ध्वनि सुनाई पड़ी और गुणी गायको का ही शब्द सुनाई पड़ा। न तो रण सजा हुआ देखा, न तुरही और मँजीरे बजाते हुए सुने और न भाटो ने विरुदावली गाई तथा न ढाढी गाते हुए मिले। न ब्राह्मण मंगल मंत्र पढते देखे और न वेश्याएँ द्वार पर खडी हुई पाई। 'केशवदास' कहते हैं कि