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उदाहरण

सवैया

खेलत हैं हरि बागै बने जहँ बैठी प्रिया रतिते अतिलोनी।
केशव कैसेहु पीठ में दीठि परी कुच कुकुम की रुचिरोनी।
मातु समीप दुराइ भले तिन सात्विक भावन की गति होनी।
धूरिकपूरकी पूरि विलोचन सूँधि सरोरुह ओढ़ि उढ़ोनी॥४८॥

श्रीकृष्ण बने-ठने हुए बाग में खेल रहे थे और उनकी रति से भी सुन्दर प्रिया वहीं बैठी हुई थी। 'केशवदास' कहते है कि किसी प्रकार उसकी दृष्टि उनकी पीठ पर लगे हुए, निज कुचकुँकुम की रमणीय चमक पर जा पड़ी। माता के समीप होने के कारण उसने अपने सात्विक भावो (ऑसू, कम्प तथा रोमांच को भली-भॉति छिपा लिया। आँसुओ को छिपाने के लिए कपूर की धूल आँखो मे छोड़ ली, कम्प छिपाने के लिए कमल को सूँघने लगी (जिससे ज्ञात हो कि कमल की सुगन्ध की प्रशंसा मे सिर हिल रहा है, और रोमांच को छिपाने के ओढनी को अच्छी तरह से ओढ लिया।

[प्रणय-कलह के समय श्रीकृष्ण ने प्रिया की ओर से पीठ दी थी। नायिका ने प्रेम-वश, पीछे से ही उनके मुख का चुम्बन किया था, अत: उसके कुचो का कुँकुँम उनकी पीठ पर लग गया था उसी को देखकर नायिका को सात्विक भाव उत्पन्न हुए और उसने उन्हे चतुराई से छिपा लिया।]

१५-निदर्शना

दोहा

कौनहुँ एक प्रकारते, सत अरु असत समान।
कहिये प्रकट निदर्शना, समुझत सकल सुजान॥४९॥