पृष्ठ:कवि-प्रिया.djvu/१८८

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(१७३)

जाय। उस शत्रु को धिक्कार है, जो सदा चित्त मे खटकता न रहे। उस चित्त को धिक्कार है, जिसमे उदार मति का आभाव हो। ('केशवदास' कहते हैं कि) उस मति को धिक्कार है जो ज्ञान के बिना हो और उस ज्ञान को धिक्कार है जो हरि भक्ति से रहित हो।

उदाहरण-२

सवैया

शोभित सो न सभा जहँ वृद्ध न, वृद्ध न ते जु पढ़े कुछ नाही।
ते न पढ़े जिन साधु न साधित, दीहदया न दिपै जिनमाही।
सो न दया जु न धर्म धरै धर, धर्म न सो जहँ दान वृथाही।
दान न सो जहँ सांच न, केशव सांच न सो जुबसै छलछाही॥३॥

वह सभा शोभित नहीं होती, जिसमे कोई वृद्ध नहीं होता और वह वृद्ध अच्छा नहीं लगता जो कुछ पढा नहीं होता। वे पढे-लिखे अच्छे नहीं लगते जिनके हृदय मे साधु जनोचित दया दीप्तमान नहीं होती रहती वह दया नहीं, जिसके साथ धर्म न हो। वह धर्म नहीं, जहाँ दान व्यर्थ माना जाता हो। वह दान नहीं, जहाँ सत्य न हो और (केशवदास कहते है कि) वह सत्य नही जिसमे छल की छाया मात्र भी रहे।

उदाहरण-३

छप्पय

तजहु जगत बिन भवन, भवन तजि तिय बिन कीनो।
तिय तजि जुन सुख देई, सुसुख तजि सपति हीनो॥
संपति तजि बिनु दान, दान तजि जहँ न विप्रमति।
विप्र तजहु बिन धर्म, धर्म तजि जहाँ न भूपति॥
तजि भूप भूमि बिन भूमि तजि, दीहदुर्ग बिनु जो बसइ।
तजि दुर्ग सुकेशवदास कवि जहाँ न जल पूरण लसइ॥४॥

ऐसे ससार को छोड दो जहाँ अपना भवन न हो और ऐसा घर छोड दो जो बिना स्त्री का हो। उस स्त्री को छोड दो जो सुख न देती हो। उस