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जिसके पास न घोडा है, न हाथी है, न रथ है, न पैदल सिपाही है और स्वय भी जो बलहीन है। 'केशवदास' कहते है कि जिसने भूलकर भी हाथ मे कठोर या तीक्ष्ण हथियार नहीं लिया। न वह योग जानती है और न मत्र अथवा यत्र ही जानती है और न उसने तत्र का ही प्रवीण पाठ पढा है। फिर भी उस गवारिनो ने तीनो लोको के रक्षक (श्रीकृष्ण) को एक ही दृष्टि से, वश मे कर लिया है।

उदाहरण-४

कवित्त

ब्रज की कुमार कुमारिका वै लीने शुक शारिका,
पढावै कोक कारिकान 'केशव' सबै निवाहि।
गोरी गोरी, भोरी भोरी, थोरी थोरी वैस फिरि,
देवता सी दौरि दौरि आई चारों चोरी चाहि।
विनगुन, तेरी अान, भ्रकुटी कमान तान,
कुटिल कटाक्ष वान, यह अचरज आहि।
एतेमान ढीठ, ईठ मेरे को अदीठ मन,
पीठ दै दै मारती पै चूकती न कोऊ ताहि॥२८॥

'केशवदास' (किसी सखी की ओर से) कहते हैं कि वज्र की कुमारिया (कन्याएँ), तोता-मैना को लिए, कोक-शास्त्र की परिभाषाओ को भली-भाँति पढाती है। वे लोग गोरी-गोरी, भोली-भाली और थोड़ी वयस की हैं। सबकी सब दौड़कर (श्रीकृष्ण) को छिप-छिपे ऐसे देख आई, जैसे कोई देवता। (क्योकि देवता सबको छिपे छिपे देख लेते है और उन्हे कोई नहीं देखता)। तेरी सौगन्ध, बिना डोरी के भौंह रूपी धनुषो को खींचकर और उनपर कुटिल कटाक्ष के वाण रखकर, मेरे मित्र (श्रीकृष्ण) के अदृश्य मन पर ऐसा प्रहार करती है कि आश्चर्य होता है। वे अपना निशाना सामने से नहीं, पीठ दे-देकर अर्थात् पीछे से छिपे रूप से मारती है, परन्तु उनका एक भी निशाना नहीं चूकता।