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इस कवित्त के पहले चरण में 'अमृत मे सना हुआ हास्य, विष की भॉति मूर्छा उत्पन्न करता है,' अत विरोध है। दूसरे चरण मे 'परम पवित्र हस' के दो अर्थ हस और परमहस होने के कारण विरोध है। परमपवित्र परम हस जैसा स्वभाव होने पर दूसरो का हृदय हरण करे-यही विरोध है। तीसरे चरण मे छोटी वयस मे बली को वश मे करने का उल्लेख है अतः विरोध है और चौथे मे कृष्ण तथा करण परस्पर विरोधी थे, इस दृष्टि से 'कृष्णानुसारी' तथा 'करणानुसारी' शब्दो मे 'विरोधाभास' है।

उदाहरण (२)

आपु सितासित रूप, चितै चित, श्याम शरीर रगै रगराते।
'केशव' कानन ही न सुनै, सु कहै रस की रसना बिनु बाते।
नैन किधौ कोउ अतरयामी री, जानति नाहिन बूझति ताते।
दूर लौ दोरत है बिनु पायन, दूर दुरी दरसै मति जाते॥२१॥

तेरे नेत्र काले और श्वेत हैं परन्तु श्याम-शरीर (कृष्ण) की ओर देखकर, उनके चित्त को अनुराग के रग मे रग मे देते है। (अनुराग का रग लाल माना जाता है)। 'केशवदास' कहते है कि वे कानहीन होने पर भी बात सुन लेने है और बिना जीभ के ही प्रेम की बातें किया करते है। तेरी ये आँखें या कोई अन्तर्यामी (मन का भेद जानने वाले) महात्मा पुरुष है? मै जानती नहीं, इसलिए पूँछती हूँ। बिना पेरो के होने पर भी दूर तक दौड जाते है और दूसरो के हृदयो मे छिपी हुई बुद्धि भी इन्हे दिखलाई पड़ जाती है अर्थात् (दूसरो के मन का अभिप्राय जान लेते है)।

विरोधाभास लक्षण

दोहा

बरनत लगै विरोध सो, अर्थ सबै अविरोध।
प्रगट विरोधाभास यह, समझत सबै सुबोध॥२२॥