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जी चन्द्रमा जैसी और यह राज मडली चन्द्रमा के परिवेष (चन्द्रमा के चारो ओर का ज्योर्तिमय घेरा) सी जान पडती है।

सुरति वर्णन

दोहा

सुरति सात्त्विकीभावमणि, मणित रुनित मंजीर।
हाव, भाव, बहि, अंतरति, अलज सलज्ज शरीर॥४६॥

सुरति के वर्णन मे सात्त्विक भाव, तत्कालीन उच्चरित होने वाले शब्द, बजते हुए बिछुए, हाव भाव, वहि और अत रति, शरीर की निर्लज्जता और लज्जा का उल्लेख करना चाहिए।

उदाहरण

कवित्त

'केशौ दास, प्रथमहि उपजत भय भीरु,
रोष, रुक्षि, स्वेद, देह कंपनगहत है।
प्राण-प्रिय बाजीकृत वारन पदाति क्रम,
विविध शबद द्विज दानहि लहत है।
कलित कृपा न कर सकति सुमान त्रान,
सजि सजि करन प्रहारन सहत हैं।
भूषन सुदेश हार दूषन सकल होत,
सखि न सुरति रीती, समर कहत हैं॥४७॥

[किसी सखी की ओर से, उसकी अतरग सखी से सुरति का वर्णन करते हुए] 'केशवदास' कहते है कि पहले तो भय उत्पन्न होता है। (परन्तु नायक के साहस दिखलाने पर, भीरुता जाती रहती है) और रोष, रुचि, स्वेद तथा देह कप आदि भाव उत्पन्न होते है। तब बाजीकरण औषधियो से पुष्ट (नायक) मना करते रहने पर भी पैरो का अतिक्रमण करता है। फिर (सुरति-समयानुकूल) तरह-तरह के शब्द उच्चारित होने लगते है तथा दाँतो का दान होने लगता है अर्थात् दाँतो