विरह वर्णन
दोहा
श्वास, निशा, चिन्ता बढ़ै, रुदन परेखे बात।
कारे, पीरे होत कृश, ताते सीरे गात॥३८॥
भूख प्यास सुधि बुधि घटै, सुख निद्रा द्युति अंग।
दुखद होत है सुखद सब, केशव विरह प्रसंग॥३९॥
'केशवदास' कहते है कि विरह के समय श्वास, निशा तथा चिन्ता बढ जाती है। (श्वास तेज चलती है, रात बडी जान पडती है और चिन्ता अधिक हो जाती है)। रुदन और प्रतीक्षा की बात ही हर समय रहती है, काला, पीला, दुबला गर्म और ठडा शरीर होता रहता है। भूख, प्यास तथा सुध-बुध घटने लगती है और सुख, नींद तथा शरीर की शोभा आदि सुखद बाते दुखद हो जाती है।
उदाहरण (१)
(कवित्त)
बार बार बरजी मै, सारस सरस मुखी,
आरसी लै देख सुख या रस मे बोरिहै।
शोभा के निहोरे तौ निहारितन नेकहूतू,
हारी है निहोरि सब कहा केहू खोरि है।
सुख को निहोरो जो न मान्यो सोभली करीन,
'केशौ राय' कीसौ तोहि जोऽब मानमोरि है।
नाह के निहोरे किन मानति निहोरति है,
नेह के निहोरे फेरि मोहि तो निहोरि है॥४०॥
(नायिका की भेजी हुई सखी रूठे हुए नायक से कहती है कि जब मेरी सखी मानकर बैठी थी और आप मनाने गये थे तब उसने मान नहीं छोडा और आप रूठ कर चले आये। मुझे तभी इस बात का भान हो रहा था कि मुझे आना पडेगा, अत मैने उसे समझाते हुए कहा था कि)