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प्रयण (युद्ध के लिए गमन) का वर्णन करते समय, चमर, पताका, छत्र, रथ, दुदुभि बाजे की ध्वनि, बहुत सी सवारियाँ, जल, थल और भूकप तथा धूल से रगे हुए वातावरण का उल्लेख करना चाहिए।

उदाहरण (१)

सवैया

राघव की चतुरग चम् चय, फा गनै केशव राज समाजनि।
सूर तुरंगन के उरझै पग, तुङ्ग पताकनि के पट साजनि॥
टूटि परै तिनते मुकता, धरणी उपमा वरणा कविराजनि।
विदुमनौ मुख फेनन के किधौ, राजसिरी श्रवैमगल लाजनि॥२३॥

युद्ध के लिए प्रयाण करते समय श्रीरामचन्द्र जी के चतुरगिणी सेना के अपार समूह मे, केशवदास कहते है कि, राजाओ को कौन गिन सकता है? उस सेना की पताकाएँ इतनी ऊची है कि उनमे सूर्य के घोडो के पैर उलझ जाते है। (घोडो पर पैर उलझने के कारण) उन पताकाओ मे लगे हुए मोती टूट-टूट कर पृथ्वी पर गिर पडते हैं। (उन गिरते हुए मोतियो की) उपमा कविराजो ने इस प्रकार दी है कि मानो वे घोड़ो के मुखो से निकले हुए फेन की टपकती हुई बूँदे है अथवा राज्यश्री मगल-सूचक लावा (धान का लावा) बरसा रही है।

( २ )

कवित्त

नाद पूरि, धूरिपूरि, तूरि वन, चूरि गिरि,
सोखि सोखि जल-भूरि, भूरि थल गाथ की।
"केशोदास" आस पास ठौर-ठौर राखिजन,
तिन की सपति सब आपने ही साथ की।
उन्नत नवाय, नत उन्नत बनाय भूप,
शत्रुन की जीविका सुमित्रन के हाथ की।
मुद्रित समुद्र सात, मुद्रा निज मुद्रित कै,
आई दस दिसि जीति सेना रघुनाथ की॥२४॥