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विनाश का वर्णन करना चाहिए। (भाव यह है कि आश्रम मे जन्तुओ का स्वाभाविक वैर भी नष्ट हो जाता है और वे प्रेम पूर्वक रहने लगते हैं।

उदाहरण

कवित्त

'केशवदास' मृगज बछेरू चूषैं बाघनीनि,
चाटत सुरभि बाघ बालक बदन है।
सिंहन की सटा ऐचै कलभ करनि करि,
सिंहन को आसन गयद को रदन है।
फणी के फणनि पर नाचत मुदित मोर,
क्रोध न विरोध जहाँ मद न मदन है।
बानर फिरत डोरे डोरे अन्ध तापसन,
ऋषिको निवास कैधों शिवको सदन है॥१३॥

'केशवदास' कहते हैं कि मृगो के बच्चे बाधिनियो का दूध पी रहे हैं और गाय बाघ के बच्चे का मुख चाटती है। सिंहो की जटाओ को हाथी के बच्चे सूँडो से खींच रहे हैं और हाथी के दाँतो पर सिंह का आसन है। साँपो के फनो पर मुदित मोर नाच रहे हैं। यहाँ न क्रोध है, न किसी का किसी से विरोध या वैर है, न मद है और न मदन अर्थात् काम पीडा ही है। यहाँ पर बन्दर अन्धे तपस्वियो को हाथ पकड कर जहा वे जाना चाहते हैं, वहाँ ले जाते हुये दिखलाई पड़ते हैं। यह ऋषि का आश्रम है अथवा श्री शकर जी का निवास स्थान है; क्योकि वहाँ भी नन्दी (बैल) (शिवाजी का वाहन) सिह (पार्वती जी का वाहन , मोर ( सोमकार्तिकेय का वाहन), चूहा (श्रीगणेशजी का वाहन) और मजमुख होने के कारण स्वय गणेशजी अपना स्वाभाविक वैर-विरोध छोडकर प्रेम से रहते हैं।