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कविवचनसुधा।


हेतु होत दूरहु निकट निकट दूर बिन हेतु।
लोचन लोचत निज चरन करन दीठि नहिं देतु॥५३॥
निरदोषी संकित सदा दोषी हिये न हानि।
बदन छपावति कुलबधू विश्वा चलति उतानि॥५४॥
जाहि परै जानै सोई प्रीति करत नित भीति।
ताप होत बिछुड़ेहु मिले इहै बडी अनरीति॥५५॥
खल जन बिनु कानहुँ परे अवगुण करैं बिचारि।
सर सरिता यद्यपि भरे काग पिअहिं घटवारि॥५६॥

नीतिगति।

कलह कण्डु मद द्यूत रति अशन शयन परनारि।
बैर प्रीति ये दश बढ़ै सेवा की अनुहारि॥५६॥
देश-अटन बुध मित्रता बारनारि सों प्रीति।
शास्त्रश्रवण नृप-सभागति पाँच चतुरता नीति॥५८॥
खाय खवावै देय कछु लेय कछुक लखि रीति।
गुप्त बात पूछैं कहैं षट लक्षण हैं प्रीति॥५९॥
काज लागि सुजनौ करहिं खलहू केर सुपास।
सीचत खार गुलाब के कुसुम बास की आस॥६०॥
खलजन के संग्रह बिना कहुँ अकाज ह्वै जाय।
जौ न कांट संचै करै खरौ खेत चरि जाय॥६१॥
निज करनी बिनु मनुज को वृथा जन्म तनरूप।
जिमि अजगल थन गज दशन स्वान पूछ शिशुभूप॥६२॥