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कविवचनसुधा।


दानगति।

दान देत धन होत है संचित जात नसाय।
सरिता बहै भरी रहै थिर सर जात नसाय॥२२॥
एक दिहे बहु मिलत है दान लाभ को मूल।
मलिन पत्र दै तरु लहै नवपल्लव फल फूल॥२३॥
बलि दधीचि शिवि करन की कीरति सुनि सुनि कान।
तृण समान मन दान मों धन को काह प्रमान॥२४॥
दान देत धन घटत नहिं नहिं पावत अधिकात।
पश्चिम जल सूखै नहीं नहिं पूरब सरसात॥२५॥
खान दान तजि धन धरै परै हरै निजु तौन।
मधुमाखी आँखी लखी साखी भाखी कौन॥२६॥
निजहित परहित दान ते संचे युगल नसाय।
क्षणभंगुर तन धन धरत परत न खनहिं लखाय॥२७॥
मान सहित निज वित्तसम तुरत दान जिन दीन।
सेवा बिन तिनकौं कविन दाता वरणन कीन॥२८॥
मान बड़ो करि दान लघु तुरत देय जो कोय।
बिन सेवा उपकार ते उत्तम दाता सोय॥२९॥
बहुत दान अरु मान लघु बहुदिन मों जिन कीन।
मध्यम दाता ताहि को सकल कविन कहि दीन॥३०॥
थोर दान सन्मान लघु सेवा कछुक कराय।
करे अधम दाता तिन्है भाषत बुध समुदाय॥३१॥