दालि नान द्वैदल सकल रची एक दल आन॥११॥
वरषा बरषत आग मों तपत शिशिर जटिआय।
दैवहु की गति एक नहिं नर की काह बसाय॥१२॥
कहत धरम आगे करब काल न देखत कोय।
बचे कूप खनि घर जरत परत धार बनबोय॥१३॥
कालगति।
काल आय जैसो परै तैसी मति सब होय।
लागे फागुन मास ज्यों लान तजैं सब कोय॥१४॥
कालपाय कछु नहिं रहै कीन्हे कोटि उपाय।
पाक साह नित सींचिये तबहू जाय सुखाय॥१५॥
जनम मरण धन निधन मों काहू की न बसात।
होत जात सब काल बश जस तरुवर में पात॥१६॥
धन यौवन विभुता बिपति जानि परत है धीर।
समय साथही जात है जिमि भादों को नीर॥१७॥
कालपाय सुख होत है नहिं कछु किये उपाय।
कोकिल बिचरत बन सदा हरषत ऋतुपति पाश॥१८॥
गिरि समुद्र छिति देवता अवसर पाय नसात।
मनुज देंह जल फेन सम बृथा ताहि पछितात॥१९॥
धनपति नरपति देवपति स्वप्न समै जिमि होय।
झूठ होत जागे सकल जगसुख जानहु सोय॥२०॥
मंत्र यत्र भैषज किये काल नीति जो जात।
बड़े २ समरथ भये काह कोउ मरि जात॥२१॥