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कविबचनसुधा।

सवैया।

द्वारिया द्वार के पौरिया पारि के पाहरू ये घर के घनश्याम हैं। दास है दासी सखीन के सेवक पाय परोसिन के धनधाम है ॥ श्रीपति कान्ह भ नित भांवरे मानभरी सतभामा सी बाम है। एक यही बिसराम थली वृषभान-लली के गली के गुलाम है ॥

कवित्त ।

मोही में रहत सदा मोहू ते उदास रहै सिखत न सीखहू सिखाये निरधाच्यो है । चौको सो चको सो कहूं जक सो जको सो के उपाय नथ को सो भांति भांति न निहायो है ।। ठाकुर कहत हित हासवारी बातन में जानत न हरि सो कहां धौ बोल हायो है। ऐसो चित्त चातुर सयान सावधान मेरो ऐरी इन आखिन अजान करि डायो है ।। ६८॥

जौ लगि न कोऊ परि लागति है आप उर तौ लगि पराई पीर कैसे पहिचानिहै। ॥ जानत हौ न आजु लौ न लाग्यो नेह काहू सन जबै नेह लागिहै तो हितहू न मानिहीं ॥ चतुर कबीश कहै मेरे कहिबे की बात नेकु ना रहैगी तू समुझि हिय ठानिहीं । जैसे तुम मोहिनी को लागत हौ प्यारे लाल वैसे तुम्है कोऊ नीक लागिहै तो जानिहौ ॥ ६९ ॥

सवैया ।

जो मिलि है तुम को तुमहूं सो कहूं कोउ तोसों जु पै हित मानिहीं । बूझे ते और की और धुनेगो सुनेगो नहीं जिसकी जो बखानिहौ ॥