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कविवचनसुधा।

राधिका की त्रिवली को बनाव बिचारि विचारियह हम लेखै । ऐसी न और न और न और है तीनि खचाव दई विधिरे खै ॥५४॥

कबित्त।

मोसों के करार गयो लम्पट लबार मन मानि अति बार मै सिंगारऊ बनायो री । छोडि कुललाज छोड़ि सखिन-समाज सखि छोड़ि गृहकाज ब्रजराज मन लायो री ॥ कुंज निशि जागी बन सिंह प्रेमपागी भन एकऊ न लागी अव शुक्र उइ आयो री । सेइ बनमाली घेरि आये बनमाली झरै लागे बनमाली बनमाली ते न आयो री ॥ ५५ ॥

चक्रवाक चक्रित चकोर मृग मीन मोर खंजन कपोत पिक चातृक चितै रहे । हिलत न पौन बन डोलत न चम्पडार चलत न चन्द रवि दङ्ग मन है रहे ।। बांसुरी बजाइ कान्ह नन्दन करत गान गोपी ग्वाल जीव जन्तु आनन्द उदै रहे । कंजनाल कुंजर पराग रस-भौर जाल मोती मुख मेलत मराल मन दै रहे ॥५६॥

सवैया।

सांकरी गैल में भेंट भई लाख बेनी बियोग व्यथान में ठाढ़े । चाहभरे दृग दोऊ दुहू के समोइ रहे अति धीरज गाढे ।। आइ न कोड परे यहि संक न अंक भरे अति आनंद बाढ़े । ढीली रसीली लिये अंखिया मुख दोऊ दुहून को जोहत ठाढ़े ॥ आवती जाती किती बटपूजन बाल वा काहू के सङ्ग सनै ना। ठाढो हुतो उत लालची लाल सों वाहू ते प्रेम सों जात बनै ना ।।