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कविवचनसुधा।

यण अनूपम है एक दिशि मूरति बिशाल गिरिजा की है। हृदयारविन्दहि बप्तिन्द हित मीत सीस मध्यमाग भ्राजत गुमानेश्वर झांकी है ॥ १॥

अम्बर अरुण अरुणोदय प्रभा को देत माला मुक्ता मांग में मनै हरत बल सों। राजत प्रभात पथ्येक पै मयकमुखी जग- मगी ज्योति हीर हारन अमल सों ॥ द्विज बलदेव केश छूटी लटै आनन पै तिनको हटावै मुख मंजुल के थल सों । तारन के मण्डल में तिमिर विचार मानो कालीनाग टारत कलानिधि कमल सों ॥ २॥

विद्रुमं की व्यच पै बिराजत बिचित्र बाल मुकुलित माला मुक्तहीर उर भावतो । छूटी लटै कुटिल कपोल कुच मण्डल लों कर सों सुधारत सुकवि छबि मावतो ॥ तारन की अवली कनक लतिका पै लसै उपमा अतूल बलदेव चित लावतो । मानों शम्भु शीश चढ़े पन्नग पियूष पीवै तिन को कमल सो कलानिधि हटावतो ।। ३॥

गुंजत भ्रगर तार तारन सितार तार अतर फुहार मजु बंजल समीर के । बसन-बिवर बंसी धुनि सुनि मनहर भूरुह गनप शब्द मुरज गंभीर के ॥ साखा लफ्टान छुटि भेटन फटान माव पिक प्यो रटान छटा गान सम तीर के। नृतक अपार को-किलाली आली ठौर और देखत बसन्त नृत्य धारन सुधीर के॥

कवित्त ।

सन्त असन्त न धीर धरै स कहा अबला निशि बासर अन्त की।