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कविबचनसुधा।

दोहा ।

को बरणे रघुनाथ छवि-केशव बुद्धि उदार । जाकी सोमा सोभियत सोमा सब ससार ॥ ८५ ॥

कवित्त ।

कौड़ी पै कनौड़े द्वार दौड़े फिरें कूकुर सों खो जो पचास आस पाये पांच दाम जो। जासो लघु लाम देखै ताहिं को न पूछ बात पाये बिन काहू के न करै भले काम जो ॥ भनै बि- जै-भूप रूप नीति को न जानै ख्याति लीबो अनुरूप परजा के धन धाम जो। स्वामी के बिगारि काम आपनो सवारि धाम ओई बदकार मंत्री होत बदनाम जो ॥ ८६ ॥

दोहा।

रामचन्द्र रघुबंशमाण प्रबल प्रताप निधान । आगम निगम पुराण नित मानत परम प्रमान ॥ ८७ ॥ आये री घनश्याम नहिं आये री धन श्याम । केकी कूजत मुदित मन नचत बियोगिनि-बाम ॥ ८८ ॥ अतन करै शर को पतन हरि बिन मोतन माह । को जानै ढहै कहा अब आयो ऋतुनाह ॥ ८९ ॥ सखा चन्द की चांदनी तातो करत शरीर । छन छन सरसत असम-शर लागत मलय-समीर ॥९०॥ मन तो मेरो तुम लियो मन बिन तन केहि काज । की मन देहु दया करौ की तनमन तजि लान ॥ ९१ ॥