कबित्त।
बेनी गठिबन्धन को बसन भुजङ्गपुच्छ उमा के बिबाह लोग संकित सहर को। लोचन अनल भाल रोचन सक्यो न करि सोचत पुरोहित बिलोकै मुख बर को ॥ भूत प्रेत डाकिनी पिशाच मड़वे में फिरै फफकि फफकि फनी उगलैं जहर को । कहा नेग योग जीव बचे को न योग तहां गारी देत भाग नेगदारी सबै घर को ॥ ८१॥
छलन सो छैल तनी गोकुल की गैल लगी कुविजा चुरैल पगी मन बच काय है । आप सुकुमारी हमैं करत भिखारी प्रीति पाछिली बिसारी ये कही जू कान न्याय है ॥ व्रजकाम जीते ब्रन बाम सबही ते ये ममारख अनीते जी ते लगी सो जनाय है। मरन उपाय है बचे न कोऊ पायहै जो काहू कलपायहै सो कैसे कल पायहै ।। ८२ ॥
सवैया ।
राम की बाम जो आनी चुराय सोलंक में मांचु की बेलि बई जू। क्यों रण जीतहुगे तिनसों जिनकी धनुरेख न नांघि गई जू ॥ बीस विसे बलवन्त हुते जो हुती दृग केशव रूप-रई जू । तोरि शरासन शङ्कर को पिय सीय स्वयम्बर क्यों न लई जू ।। सिद्धि समाज सने अजहूं कबहूं जग योगिन देख न पाई । रुद्र के चित्त समुद्र बसे नित ब्रह्महु पै बरणी जो न जाई ॥ रूप न रेख न रङ्ग विशेष अनादि अनन्त जो वेदन गाई । केशव गाधि के नन्द हमैं वह ज्योति को मूरतिवन्त देखाई ।।