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कविबचनसुधा।

प्रेमसखी।

फूलछरी तरवारि चली इत ते पिचका मरि मारति तीर हैं। भीजि गई रंग से सिगरी बिथुरी अलकै न सँभारत चीर हैं । शस्त्र प्रहार सहै सिगरे भट होसभरे न गनै तन पीर हैं। प्रेमसखी प्रमदा मनमत्त खरी मनो घायल घूमत बीर हैं ॥५३॥

कबित्त ।

सोहैं मुचि सुभगात दामिनी सो दौरि दौरि कामिनी लपटि गई सचै सुकुमारे सों। गहि गहि ल्याई जू प्रबल घरहाई सवै होरी होरी करत किशोरी न्यारे न्यारे सो ॥ प्रेमसखी गुलचीप सिगरे नचाय दीन्हों युवती बनाय बहु कहत बिचारे सों। अंजन अँजाय हम चूरी सारी पैन्हि आय कहियो हुजूर जाय प्रीतम हमारे सो ॥ ५४॥

जनकदुलारी की सहेली अलबेली एक लाडिले लखन सों गुमान-मरी झगरी। दूसरी चतुर वेष पूरुप बनाय आय जाय रामपास ठाढी भई छवि-अगरी ॥ तीसरी तुरत दौरि बेंदी माल भरत के लगाय रिपुसूदन को ल्याई छीनि पगरी । बात कहिये के मिस प्यारे को बदन चूमि मागि आई तारी दै हँसन लागी सगरी ॥ ५५ ॥

सवैया।

और सहाय भई प्रमदा सब मित्र को ल्याइ सखी यहि ओर का। माग बड़े इनके कहिये तिय की छवि दीजिये राजकिशोर को । आजु खवासी करो सियकी युक्ती तन धारि खवावो तमोर को ।