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कविबचनसुधा।


कमल पदन के । उर गुंजहार बनमाल वारापार बनी सुखमा अपार रूपसागर हरन के ॥ सिखिमख मुकुट लकुट कर कञ्चन की पीतपट लपट छटान के कदन के । नग के कृदन मुसुकान में रदन सोहैं छबि के सदन मनमोहन मदन के ॥ २५ ॥

सवैया।

हम हूं सब जानति लोक की चालहिं क्यों इतनो बतरावती हो। हित नामे हमारो बनै सो करो सखियाँ सबै मेरि कहावती हौ ।। हरिचन्द जू यामे न लाम कछू हमै बातन क्यों बहरावती हौ । सजनी मन पास नही हमरे तुम कौन कों का समझावती हौ । अबहीं मिलिबो अबहीं मिलिबो यह धीरज हूं में घिरैबो करै। उर तै बढि आवै गरे ते फिरै मन को मन माहिं घिरैबो करै ।। कबि बोधा न चाह हितू हित की नितही हिरवासी हिरैबो करें। कहते न बनै सहतेही बने मनही मन पीर पिरबो करै ॥२७॥ तुम आपनी ओर चहै सो करौं हम आपनो नेह न छोडि हैं जू। तुम बोलो चहै अनबोलो रहौ हम प्रीति सो नैन न मोरि है जू ॥ विधि को जो लिखो सो मिटैगो नहीं बिरहानल में विष घोरिहै जू । लिख देत हैं कोरहि कागज पैबम और सों प्रीति न जोरि हैं जू ॥ गुणगाहक सो विनती इतनी हकनाहक नाहिं ठगावनो है। यह प्रेम बजार की चांदनी चौक में नैन दलाल अंकावनो है ।। गुन ठाकुर ज्योति जवाहिर है परबीनन सों परखावना है। अब देख्नु बिचारि संभारि कै माल जमा पर दाम लगावनो है ॥ यह मेरी दशा निसिबासर है नित तेरी गलीन को माहियो है।