नेक सी किंकिरी जाके परै अतिपीरन कस हूं धीर धरै ना।
केसे परै कल एरी भटू जब आँखि में आँखि परे निकरै ना ॥९१ ॥
तिन्है नाहिं सराहत कोऊ अहै जहॅ यांचक ताही पतीजिये जू । हठ नाही की नाही भली है भटू तजि नाही विनै सुनि लीजिये जू । कवि शङ्कर जो रस नाही हिये रसनाही को तो रस दीजिये जू । यहि नाहीं में नाही कछू रस है मन में बति नाहीं न कीजिये जू ॥ ९२ ॥
गही जब बाही तब करी तुम नाही पांव धरी पुलकाही नाही नाही सो सोहाई हौ । चुम्बन में नाही औ अलिङ्गन में नाहीं परिरम्भन मैं नाही नाही नाही अवगाही है।।। ठाकुर कहत जब डारी गलवाही तब करी तुम नाही आली चतुर सोहाई हो । करो नाही नाहीं जैसे डोलै परछाही जह हां ते नीकी नाही सो कहां ते सीखि आई हौ ।। ९३ ॥
सवैया ।
अजु कहां अरसात नम्हात देखात कछू अब यो अलबेले ।
लाल महावर माल लसै अधरान पै अंजन को रँग मेले ॥
त्यों परताप कहा कहिये पिय छोडि कहा इत आइ अकेले ।
मोहन जाउ तहा ही जहां जिन के सत्सङ्गन में निसि खेलेर ९४
गुरुलोगन की तनि लान सबै हम प्रीति करी तुम सो बजि कै।
बिसराइ दई तुम तौन लला निवहीं नहि सो तनिको छनि कै ।।
बदनाम भई अब रीति नई कहुँ रैन बसो अनतै भनि के ।
दिखरावन को यह रूप नयो इत प्रातहि आवत है। सजि के ।।