पृष्ठ:कविवचनसुधा.djvu/२४

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२३
कविवचनसुधा।

न जागे सच जोतिहू की जाला मैं ॥ ऊरुन से ऊरु मुख मुख से लगाये उर उर सों लगाये जागे पागे प्रेम पाला मै ॥ पूम को न पाला गनै दूखन दुसाला होत है रहे रसालः दोऊ एके चित्रसाला मै ॥ ८७ ॥

अगर को धूप मृगमद को मुगन्धवर बसन विमाल मोती। अङ्ग ढाकियतु है । कहै पदमाकर पै पान को न गौन तहां ऐसे । भौन उमगि उमगि छकियतु है ॥ भोग के संयोग योग सुरत हेमन्त ही में एते और सुखद सुहाये वाकियतु है । तान की तरङ्ग तरुनापन तरनि तेन तूल तेल तरुनी तमोल ताकियतु है ॥८८॥

ग्रीषम के ताप तें अताप तन तायो रहै बरषा में मेघमाला अबली निहारी मैं । सरद सुग्वाई हेम हाहा के बिताई तापै सिसिर सताई मन्द मारुत की मारी मैं ॥ रामनाथ होरी में किसोरी तब ऐसे कहै ऊधो यह बात कहि दीनो सभा सारी मै। आयो है बसन्त प्राण तर तें उफनान लागै अब ना बचेगी । श्याम तेरी बेकगरी मै ॥८९॥

महराज भये गरुआई भई रसह विष चोरि कै पाजतु है ।

तुम पुरान सुनौ समुझौ सुरव दे के नहीं दुख दीजतु है ॥

कहि ठाकुर मोते बनी न बनी न बनी को बनी करि लीजतु है।

हरि जैमी करी अपने ब्रज को अपनो करि ऐसो न कजितु है ।।

जाके लगै सोई जानै व्यथा पर-पीरन को उपहास करना।

सागर जो चित मों चुभि जाय तो कोटि उपाथ करो तो टरै ना।। वेद