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॥ श्रीः ॥
कविवचनसुधा।
दोहा।
श्री गुरुचरण सरोज रज निजमन मुकुर सुधारि। बरणौं रघुपति बिसद जम जो दायकफलचारि ॥
सवैया ।
अवधेश के द्वार सकार गई सुत गोद मैं भूपति लै निकसे । अवलोकि हो सोच विमोचन सो ठगि सी रही ने न ठगे धिक से। तुलसी मनग्नन रजनि अंजन नैन सुखमन जाति कसे । सजनी शशि तै सम शील उमै नवनील सरोरुह से बिकसे ॥२॥
कवित्त।
भूषित विभूति सिद्धि सम्पति प्रसूति सितकण्ठ उपवीत सेष सेखर शरीर है । कालहू के काल पै कृपाल सदा दासन उदित उदारता हमेस हुलसी रहै ॥ औध चचरीक चित पुंडरीक पायन पै नित गुनगायन का रसना रसी रहे । मंदाकिनी मालि अंक मण्डित मृणाली मंजु मूरति महेश मरे मानस बसी रहै ॥ ३॥
सुमनोज मये उनये घन मै दमकैं दशहूं दिशि दामिनिया । फहराय फुही रस मैं बरसैं जगी जूगुनू जोतिन जामिनिया ।। महिपाल जू तैसेही सीरी समीर सुगन्धित मन्द है गामिनियां । अस पावस अंक पियाके अली बनि सोई भली विधि भामिनियां ॥ ४ ॥