कवित्त।
मोहन को मन तेरे हाथही लगोई रह अंक उरझानी रमबेलि सरसत है । काकनद नाल दोऊ रूपक सरोवर में दग्वि दावि सौतिन को मन तरसत है| भरमी सुकवि यत्र विधिने बनाय रावी व्याकुल सुचेत होत नेक परसत है । बाह की दुलन मांह डाले मन मुनिन के जग बस कर तेरे भुन दरसत हैं ॥ ४२ ॥
कैधौ युगनंघन के थम्भन के खम्भ केधौ ऊपर उलंघन के सिढ़ी जुग फारे है । कधी रूपरेजा बांधि नेजन से निकमि आगे जाहिर करत नीति रति के मिनारे हैं । भौन कवि कह मे आसे बरदार कैधौ आसे द्वै निकासे खासे हुकुम विचार है । जुरवा जलूम तीन उरवा परत काम कुरवा करत मंजु मुरवा तिहार है
सुदर बदन राधे सोमा को सदन तेरो बदन बनायो चार-बदन बनाय कै । ताकी रुचि लेन को उदित भया रैनपनि राख्यो मतिमूढ निज कर बगराय कै ॥ कहै कवि चिन्तामणि ताहि निसि चोर जानि दियो है सजाइ पाकमामन रिमाय के । या निसि फरची अमरावती के आस पास मुख में कम मिम कारिख लगाय के ॥ ४४ ॥
कहां मृतु हांस कां सुखद मुबास कठां नित को उनाम कहां सबही को मोहनो । कहा मृदु बैन पुनि कहा ये लनीले नैन कहां नेह मरी सैन कहां मुरि जोहनो ॥ चि की नि और जोबन जुन्हाई कहां उपमा लजाई जैसे मनि काडी पाहनो।