पृष्ठ:कविवचनसुधा.djvu/१०

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कविबचनसुधा।


जावक सुरङ्ग मै न ईङ्गर के रङ्ग मै न इन्दुवधू अङ्ग में न रङ्गोनि बाल मै । बिम्बफल विद्रुम बिलोके बहुभांतिन के बिलै जात एमी छबि बन्धुन विसाल मै ॥ कहै कविगङ्ग लाख ललना अधर लाली लाल वारि डारौ लाग्य मांति रङ्ग लाल मैं । किंसुक रसाल मै न कुसुम की माल मे न गुंजन गुलाल मै न गुललाला लाल मै ॥ ३३॥

मखमलतलपग पलपल सोम बढ़े केदली से खम्भ जंघ अमल सुहावतो । केहरि के लकहि कलक कटि देनहार छवि भौर निन्दक मन्दाकनाफ भावतो ॥ त्रिबलीरु कचकुच ग्रीव चिबुका अधर रद नासा नैन मोचि उपमा न पावतो । नीलपट मध्य या मुखाराबन्द भ्राजमान इन्दु ज्यों सघन घन टारि छबि पावतो ॥ ३४ ॥

ग्रीषम दुपहरी में प्यारी परजंक पर सोवत निसंक छचि छाई स्वदकन की । कंचुकी अरुण छूटी अलके कपोलन पे सोहै उर माल पै मराल के भखन की ॥ गह भुन बाम के उठाय मुख चूमि लियो जागि परी औचक अनूप यों लखन की । लूटत लोनाई बड़ेमागन सो पाई छवि देखे बनि आई अरुनाई या चखन की ३५

सर्वया ।

एक समै मनमोहनजू सजि बीन बजावत बेन रसालहिं।

चित्त गयो चलि मोहन को बृखभानसुता उर मोति के मालहिं।।

सो छवि ब्रह्मा लपेटत यों कर लेकर सोकर कज सी नालहिं।

ईश के सीस कुसभ के पुञ्ज मनो पहिरावत व्यालिनी व्यालहिं३६

गङ्ग नहीं मुकता भरी माग है सेस नहीं उर बेनी बिसाल है