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कविता-कौमुदी
 

ऋतु कुसुमाकर आकर बिरह बिसेखि
ललित लतान मितान बिताननि देखि॥११॥
जेठ मास सखि सीतल बरकै छाँह।
करुई नींद सिर्हनवाँ पिय कै बाँह॥१२॥
पिय कर परस सरस अति चन्दन पंक।
भाषक रजनि सुहावन दरस मयंक॥१३॥
यदि च भवति बुध मिलनं कि त्रिदिवेन।
यदि च भवति शठमिलनं किं निरयैन॥१४॥
अहिरिनि मन की गहिरिनि उतरु न देइ।
नैन करै मथनिया मन मथि लेइ॥१५॥
तपन तपै ऋतु ग्रीषम तीषन घाम।
ताकि तरुनि तन सीतल सोवै काम॥१६॥
छाँह सघन तरु भावै बालम साथ।
की प्रिय परम सरोवर सीतल पाथ॥१७॥

◎ समाप्त ◎